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|संग्रह=यादों के रजनीगंधा / संतोष श्रीवास्तव
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<poem>
माघ की हवाएँ
गंगा की बूँदों को लिए
सहला जाती हैं बालों को
जैसे माँ सहलाती थी
भोर होने की सूचना दे
आँख खुलते ही
नजर पड़ती थी
माँ के वात्सल्य पर
हाथ में पकड़े
प्रसाद के दोने पर
उस पर रखा
गेंदे का फूल
छुआती थीं माथे पर
राजरानी-सा
सुख की कामना
मेरे लिए

अब माँ नहीं हैं
आस्था का कुंभ जारी है
जारी है संघर्ष
नहीं देखना है
हर क़दम पर
नियति के बिछे काँटे
नहीं सहलाने हैं
पाँव के छाले

माँ की आस्था
जीवित रखनी है
पाना है राजरानी-सा सुख
</poem>
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