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|रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव
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|संग्रह=यादों के रजनीगंधा / संतोष श्रीवास्तव
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<poem>
जाने कितने समंदर
धारे रहता है आसमान
अपनी कोख में
धरती से उसका
जाने क्या बंधन है
कि लौटा देता है
बार-बार
सारे समंदर धरती को
और हल्का हो
निहारता है
छलकती धरती को
मौसम के आने जाने तक

धरती भी तो
उमसती ,तपती
चटखती दरारों को
खामोशी से सहती
देती है आसमान को
अपना लहराता संसार

कभी नहीं मिलते दोनों
पर पाने लौटाने का
यह क्रम
दोनों निभाते आ रहे हैं
अपने जन्म से ही

उनका यह बंधन ही
मानव ज़िन्दगी का
सबब है
</poem>
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