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|रचनाकार=पुष्पराज यादव
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}}
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<poem>
सिमट रहा है वफ़ा का आँचल हिसार-ए-वहशत मचल रहा है
अजीब अनहोनियों के डर से हमारा सीना दहल रहा है
ये दश्त काँटों से फल रहा है ये क्या कि पर्वत उछल रहा है
ज़मीं कि बारूद हो चुकी है फलक कि शोले उगल रहा है
ये मेरे अपने ये मेरे शाइर जो रफ्ता-रफ्ता गुजर रहे हैं
ख़ुदा की आँखें मिची हुई हैं नदी का पानी उबल रहा है
ये दौर-ए-हाजिर की बे-हिसी है या एक बगुले की शक्ल कोई
जो मेरे चश्मे की मछलियों को इक-एक करके निगल रहा है
मैं गाहे-गाहे कजा से आगे क़दम बढ़ाये गुजर रहा हूँ
कि चूहा बिल्ली से तेज़ रौ में ख़ुदी से आगे निकल रहा है
वो जैसे रंग-ए-गुलाल भी हो वह जैसे बाब-ए-विसाल भी हो
वो यानी शाइर का ख़्वाब है जो हमारे सीने में पल रहा है
</poem>
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सिमट रहा है वफ़ा का आँचल हिसार-ए-वहशत मचल रहा है
अजीब अनहोनियों के डर से हमारा सीना दहल रहा है
ये दश्त काँटों से फल रहा है ये क्या कि पर्वत उछल रहा है
ज़मीं कि बारूद हो चुकी है फलक कि शोले उगल रहा है
ये मेरे अपने ये मेरे शाइर जो रफ्ता-रफ्ता गुजर रहे हैं
ख़ुदा की आँखें मिची हुई हैं नदी का पानी उबल रहा है
ये दौर-ए-हाजिर की बे-हिसी है या एक बगुले की शक्ल कोई
जो मेरे चश्मे की मछलियों को इक-एक करके निगल रहा है
मैं गाहे-गाहे कजा से आगे क़दम बढ़ाये गुजर रहा हूँ
कि चूहा बिल्ली से तेज़ रौ में ख़ुदी से आगे निकल रहा है
वो जैसे रंग-ए-गुलाल भी हो वह जैसे बाब-ए-विसाल भी हो
वो यानी शाइर का ख़्वाब है जो हमारे सीने में पल रहा है
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