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<poem>
ये ज़िन्दगी जीने की सजा काट रहे हैं
हम लोग चराग़ों से हवा काट रहे हैं

ये साअते-हिज्राँ ये अलामत शबे-गम की
हम और भी कुछ इसके सिवा काट रहे हैं

थे आदम-हौवा ने अलम काटे पुराने
हम लोग नये हैं सो नया काट रहे हैं

हँसिये कि नये दौर की सौगात है हमको
अब यार ही यारों का गला काट रहे हैं

हम तेरे बुलाने से चले आये थे लेकिन
हर शख़्स की आँखों से पता काट रहे हैं

क्या है जो नहीं काट सके तेरे कहे पर
गर कुछ नहीं ये सब तो ये क्या काट रहे हैं

फिर वहशते-दिल सहने सनम ढूँढने निकली
दुनिया से फिर इक रब्ते-वफा काट रहे हैं
</poem>
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