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<poem>
फ़िज़ा मलूल है यारों फ़िज़ां में मत निकालो
ये सुब्ह-ए-मर्ग है बाद-ए-सबा में मत निकलो

ज़रा-सा क़ुर्ब अभी ज़िन्दगी पर भारी है
घरों में क़ैद रहो इस वबा में मत निकलो

हमारी आग की लपटें हमारे घर में रहें
ये एहतियात रखो और हवा में मत निकलो

घटायें और भी बरसेंगी अगले मौसम में
ज़रा-सा सब्र करो इस घटा में मत निकलो

हयात-ओ-मौत के दर पर खड़े हुए लोगों
ख़ुदा बचाये पा महशर-बपा में मत निकलो

नये सफ़र को ये रख्त-ए-सफर नहीं काफ़ी
नफ़स हो तंग तो राह-ए-फना में मत निकलो

मनाओ शुक्र कि ये नस्ल-ए-नौ सलामत हो
दुआ को हाथ उठाओ ‘दुआ में मत निकलो’
</poem>
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