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<poem>
यक़ीं तुम ये दिलाते हो कि दरिया है बड़ा गहरा
नहीं इसका कभी पानी हमारी झील में ठहरा

बगावत पर चिरागाँ लग रहे हैं तो ज़रूरी है
हवाओं से हटा दें आप अब हर ओर से पहरा

यक़ीं के आइने में आज जब भी देखता हूँ तो
नजर आता है धुँधला क्यों मुझे हर एक का चेहरा

उठाए फ़न हजारों नाग जिस पर रक्स करते हैं
सियासत हो गयी है आज वह इक बीन का लहरा

अगरचे मौन है लेकिन रियाया जानती है सब
भले नाकामियों पर ख़ूब तू परचम यहाँ फहरा

तुम्हारी याद के गर गुल सबा इस ओर ले आती
महक उठता नहीं क्या एक दिन दिल का मेरा सहरा
</poem>
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