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|संग्रह=लम्हों की फुलकारी / मधु 'मधुमन'
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<poem>
ओढ़ के रखते हैं सब चोले क्या कीजे
ऊपर से बनते हैं भोले क्या कीजे

झूठे मक्कारों की होती जय जयकार
सच के हक़ में कोई न बोले क्या कीजे

मजलूमों की सुन कर हाहाकार भी अब
कोई दिल के द्वार न खोले क्या कीजे

जिस काग़ज़ पर लिखना पढ़ना था इनको
उस पर बच्चे बेचें छोले क्या कीजे

इक दूजे को उकसा कर जब रहबर ही
नफ़रत के भड़काएँ शोले क्या कीजे

क्या-क्या करने के मंसूबे बाँधे थे
लेकिन सब पर पड़ गए ओले क्या कीजे

ऊपर वाले ने जब अपने पलड़े में
ग़म ही ‘मधुमन ‘रख कर तोले क्या कीजे
</poem>
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