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|रचनाकार=मधु 'मधुमन'
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|संग्रह=धनक बाक़ी है / मधु 'मधुमन'
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<poem>
सिर्फ़ इक तहरीर बन रह गयी
ज़िंदगी तस्वीर बन कर रह गयी

प्यार से हमने लिखी थी मिल के जो
वो कहानी पीर बन कर रह गयी

दर्द की बदली जो छायी ज़ह्न पर
वो नयन का नीर बन कर रह गयी

ये शब-ए-ग़म तो गुज़रती ही नहीं
द्रौपदी का चीर बन कर रह गयी

मुस्कुराए किस तरह कोई भला
रूह तक दिलगीर बन कर रह गयी

रौशनी ने तो किनारा कर लिया
तीरगी तक़दीर बन कर रह गयी

मेरी अपनी सोच ‘मधुमन ‘बारहा
पाँव की ज़ंजीर बन कर रह गयी
</poem>
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