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|रचनाकार=मधु 'मधुमन'
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|संग्रह=वक़्त की देहलीज़ पर / मधु 'मधुमन'
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<poem>
जाने कितने ख़्वाब टूटे वक़्त की देहलीज पर
रह गए कितने ही लम्हे वक़्त की देहलीज पर

गुम गए हैं ज़िन्दगी के सब खजाने कीमती
ख़्वाब, नींदें ,चाँद ,तारे वक़्त की देहलीज पर

सोचने बैठें तो कितना कुछ यहाँ पर खो गया
जाने कितने साथ छूटे वक़्त की देहलीज पर

लाँघ कर इसको न कोई आ सके उस पार से
किस क़दर हैं सख्त पहरे वक़्त की देहलीज पर

दश्त-ओ-सहरा का सफ़र है और नंगे पाँव हम
उम्र भर भटके ही भटके वक़्त की देहलीज पर

बेखबर हैं रास्तों से ,लापता हैं मंजिलें
फिर रहे हैं बहके -बहके वक़्त की देहलीज पर

और कितने रोज़ ‘मधुमन ‘है सफ़र में जिन्दगी
कब तलक हैं साँस अटके वक़्त की देहलीज पर
</poem>
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