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|संग्रह=वक़्त की देहलीज़ पर / मधु 'मधुमन'
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<poem>
अपने माजी के खजाने क्या-क्या
हमने देखे हैं ज़माने क्या-क्या

चाँद को देख मचलना दिल का
याद आते हैं फसाने क्या-क्या

रोज वादों से मुकर जाती है
जिन्दगी तेरे बहाने क्या-क्या

एक मौका जो मिला बस उनको
वो लगे हमको सुनाने क्या-क्या

रात ,तन्हाई ,अँधेरे ,सहरा
गम ने ढूँढे हैं ठिकाने क्या-क्या

जिस्मो-जां,रूह ,जिगर सब घायल
उसने फेंकें हैं निशाने क्या-क्या

हर घड़ी सब्र ,रजा ,समझौते
वक्त आया है सिखाने क्या-क्या

दश्तो-सहरा का सफ़र, हम तन्हा
कर्ज ‘मधुमन’ हैं चुकाने क्या-क्या
</poem>
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