भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatGhazal}}
<poem>
मेरा राजा बड़ा ज़िद्दी मेरी सुनता नहीं कुछ भी
मचाता शोर है ज़्यादा मगर करता नहीं कुछ भी
वो इतना झूठ कैसे बोल लेता ‘ पालिटिसियन ’ है
हिला देता है अंबर तक मगर हिलता नहीं कुछ भी
हमीं हैं जो तुम्हारी बात पर करते यकीं लेकिन
किला जब रेत का ढहता, है तो बचता नहीं कुछ भी
मेरे बच्चों को खाना भी नहीं भरपेट मिलता है
तड़पते हैं मेरे बच्चे तुम्हें दिखता नहीं कुछ भी
मेरे हिस्से में जो आयी ज़मीं बंजर ज़ियादा है
बहुत कुछ बोने को बोता हूँ पर उगता नहीं कुछ भी
जिसे देखो हमारी जे़ब पर कैंची चला देता
कमाने को कमाता हूँ मगर बचता नहीं कुछ भी
कहाँ से, क्यों उठा लाता है इतनी लकड़ियाँ गीली
धुआँ ही बस धुआँ दिखता मगर जलता नहीं कुछ भी
</poem>