{{KKCatGhazal}}
<poem>
गाँव से कब दूर जा पाता हूँ मैं
शहर जाकर लौट फिर आता हूँ मैं
गाँव में मेरा भी अपना नाम है
शहर में मजदूर कहलाता हूँ मैं
गाँव में अपना भी इक छप्पर तो है
शहर में बेघर हुआ जाता हूँ मैं
अब न मैं घर का रहा न घाट का
छोड़ करके गाँव पछताता हूँ मैं
डालता हूँ जान को जोख़िम में रोज़
चार पैसे तब कमा पाता हूँ मैं
गाँव को समझा गँवारों की जगह
खुद की बेकूफी पे शरमाता हूँ मैं
बोझ इतना काम का सर पर लदा
शाम को भूखा भी सो जाता हूँ मैं
</poem>