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ढो रही सारे शहर की गंदगी मैं
जी रही अभिशाप में ऐसी नदी मैं
थे कभी कान्हा यहाँ बंशी बजाते
सबसे दूषित आज वो जमुना नदी मैं
आदमी के पाप से गँदला गयी हूँ
सोन,गंगा, गोमती, गोदावरी मैं
मैं नदी हूँ , जानती भी हूँ हक़ीक़त
पर विवश हूँ झेलने को त्रासदी मैं
इक से इक घड़ियाल हैं पर डर नहीं है
आदमी की जात से घबरा रही मैं
आप तो तालाब , कूआँ खोद लेंगे
इन परिंदों की तो लेकिन ज़िन्दगी मैं
आँसुओं से मेरे आ सकती प्रलय भी
इसलिए रो भी नहीं सकती कभी मैं
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