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|संग्रह=लिक्खा मैंने भोगा सच / अमर पंकज
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<poem>
ख़्वाब है या है हक़ीक़त दिल ने भरमाया है क्या!
आसमां से चाँद धरती पर उतर आया है क्या!

गेसुओं की आड़ से है झांकती तिरछी नज़र,
चाहतों ने आज फिर से पंख फैलाया है क्या!

धड़कनें फिर गुनगुनाईं बन गयी फिर इक ग़ज़ल,
साँस कुछ महकी हुई है तू ने महकाया है क्या!

यक-ब-यक है सामने इक नुक़रई हुस्नो-जमाल,
देह की इस गंध ने फिर मुझको बहकाया है क्या!

सुर्ख़ लब हैं या धधकतीं आग की लपटें ‘अमर’
इश्क़-शोला, वस्ल-पानी, हमने झुठलाया है क्या!
</poem>
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