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रविवार को 18:00 बजे {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अमर पंकज
|अनुवादक=
|संग्रह=लिक्खा मैंने भोगा सच / अमर पंकज
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{{KKCatGhazal}}
<poem>
झूठ हर्षित हो रहा है आज के इस दौर में,
सत्य मूर्छित हो रहा है आज के इस दौर में।
अब सियासत ही सफ़लता की कसौटी बन गयी,
मन पराजित हो रहा है आज के इस दौर में।
शोर करती है सफलता श्रम बिना जो मिल रही,
मूढ़ मुखरित हो रहा है आज के इस दौर में।
जो मुखर था और करता प्रश्न था हर दौर से,
वह अचंभित हो रहा है आज के इस दौर में।
चढ़ रहे नव देवकुल पर नफ़रतों के फूल फल,
द्वेष अर्पित हो रहा है आज के इस दौर में।
सिर्फ़ जो है पात्र प्रहसन का बना है शूर और
रोज चर्चित हो रहा है आज के इस दौर में।
क्यों ‘अमर’ लगता मुझे है हर तरफ़ बस स्वार्थ ही,
मूल्य विकसित हो रहा है आज के इस दौर में।
</poem>