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|संग्रह=हादसों का सफ़र ज़िंदगी / अमर पंकज
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<poem>
कोई पहचान तो उसको मछंदर बन के आया है,
सियासी चाल है उसकी कलंदर बन के आया है।

तुम्हें मालूम तो कुछ हो ज़माने भर के आँसू ही,
जमा होकर तड़पता-सा समंदर बन के आया है।

हमेशा तुम रहे लड़ते शहादत भी है दी तुमने,
मगर अब जीतकर दुश्मन सिकंदर बन के आया है।

भिखारी-सा बना फिरता था सत्ता की गली में जो,
मिला जब साथ सत्ता का चुकंदर बन के आया है।

हवा में उड़ रहे वादे चमत्कारी अदाएँ हैं,
‘अमर’ है खेल सत्ता का मुक़द्दर बन के आया है।
</poem>
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