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Kavita Kosh से
कुछ तीस बरस पास समुन्दर के रहा हूँ
आँखों ने बड़ी देर से सहरा नहीं देखा
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सुकूँ पज़ीर नहीं हैं गड़े हुए मुर्दे
उखाड़िए न इन्हें, ये वबाल कर देंगे
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उलझा ये जनेऊ तो सुलझता नहीं तुमसे
सुलझाओगे कैसे भला महबूब के गेसू
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