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<poem>
हरियाली की भस्म लगाकर
हम इतराये हैं ।
अमराई में अंगारों के
ढेर लगाये हैं ॥

शाम सुबह को लाँघ दुपहरी
आग उगलती है।
नागिन बनकर रात निगोड़ी
लावा भुनती है।
छिड़क-छिड़क जल छत पर हम तो
सोते आये हैं॥

पीपल के घर सूरज आकर
धौंस जमाता है।
बरगद के नीचे बैठा
कैक्टस मुस्काता है।
पेड़ों की जीवित लाशों को
ढोते आये हैं॥

बादल बूँद बयार लगाते
आग , अजूबा है।
जलते दिखे अलाव जहाँ पर
जंगल डूबा है।
लू के गर्म थपेड़े हमने
बरबस खाये हैं॥

मरघट-सा सन्नाटा फैला
मंजुल घाटी में ।
शूल बिछाते-चलना सीखा
इस परिपाटी में ।
देख पाँव के छाले हम बस
रोते आये हैं॥

शोकाकुल-सी छाँव धूप को
ठौर दिलाती है।
पंछी को श्रीहीन शाख़ अब
राह दिखाती है।
संकल्पों ने अश्रु बहाकर
फ़र्ज़ निभाये हैं॥
</poem>
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