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<poem>
बाहर रूप अनेक भले हों,
भीतर से मैं एक रहा हूँ ।
सूख गया है ताल किन्तु मैं
जाल अभी तक फेंक रहा हूँ॥

घाट-घाट पर आग लगी है,
सूखा ताल बुझाने में ।
छोटी-छोटी नादानी पर
उम्र गई समझाने में ।
काँप रहे हैं पैर किंतु मैं
सुंदर लाठी टेक रहा हूँ।
सूख गया है ताल किंतु मैं
जाल अभी तक फेंक रहा हूँ॥

एक बराबर रहे हमेशा
आग-आग पानी-पानी ।
कितना मुश्किल है कुछ कहना
किसकी कितनी नादानी ।
कौन कहेगा आज यहाँ पर
मैं भी कितना नेक रहा हूँ ।
सूख गया है ताल किन्तु मैं
जाल अभी तक फेंक रहा हूँ॥

भरना है हर हाल ताल को,
मीन पास भी आएगी ।
पहले छवियों के उत्सव में
तड़प-तड़प मुस्काएगी ।
बुझे-बुझे अंगार जलाकर
अपनी रोटी सेंक रहा हूँ ।
सूख गया है ताल किन्तु मैं
जाल अभी तक फेंक रहा हूँ॥

मेरा मीन ताल से नाता,
जल से भी याराना है ।
पुश्तैनी घरबार पुलिन पर,
उत्सव यहीं मनाना है ।
मेल परस्पर रहा सभी से,
पर थोड़ा व्यतिरेक रहा हूँ ।
सूख गया है ताल किंतु मैं
जाल अभी तक फेंक रहा हूँ ॥S
</poem>
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