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<poem>
जितनी लहर भिगो जाती है
उतनी लगती आग ।
मन का कागा बोल रहा है
देहरी आया फाग ॥

थोड़ी-सी जो धूप खिली तो
बिखरे सारे रंग ।
सँझबाती के संग बदलते
परवानों के ढंग ।
नैनन नींद सुला देती है
पर हम जाते जाग ।
मन का कागा बोल रहा है
देहरी आया फाग ॥

तन्हाई में स्वप्न सजाता
रोज़ नया अरमान ।
एक अनोखा पुलक जगाता
तन छूकर पवमान ।
जितनी हया डुबो जाती है
बढ़ जाता है राग ।
मन का कागा बोल रहा है
देहरी आया फाग ॥

झुमक-झुमक मन बौर-टिकोरे
हलचल है अनजान ।
मौसम की बाजी बदली है
छोटी-सी मुस्कान ।
जब जब हवा बुझाने आती
जलता तेज चिराग।
मन का कागा बोल रहा है
देहरी आया फाग॥

अंदर एक नदी बहती है
बहती जिसमें आग।
दामन पर जितने लगते हैं
धुल जाते हैं दाग ।
नफ़रत जो भी बो जाए पर
उगता है अनुराग।
मन का कागा बोल रहा है
देहरी आया फाग ॥
</poem>
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