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<poem>
तोड़ दिये सब बन्ध काव्य के घिसे-पुराने
नये ढंग से हम जनता को चले जगाने
जनता, जो पहले से जाग रही थी, बोली-
‘जला-जलाकर आप लोग कविता की होली
डाल रहे अपनी क्यारी में शेष उसी का
भुना रहे हैं गली-गली अवशेष उसी का
जनता का प्रतिरोध आपको रास न आया
जनमानस से दूर छद्म संसार बसाया
तैर हवा में व्यर्थ लकीरें खींच रहे हैं
जड़ें काट दीं और तने को सींच रहे हैं
पहल और परिवर्तन का स्वागत है भाई
किन्तु आपने कविता की पहचान मिटाई
कविता नारा-कथा-गद्य-इतिहास नहीं है
कविता कोरा व्यंग्य हास-परिहास नहीं है
कविता प्रबल प्रवाह सत्य के भाव पक्ष का
वशीभूत होता जिससे जड़ भी समक्ष का
कविता जो मन की ऋतु का परिवर्तन कर दे
कभी स्नेह तो कभी आग अंतर में भर दे’

</poem>
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