}}
{{KKCatKavita}}
<poem>गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
सख्त पंजा, नस कसी चौड़ी कलाई
और बल्लेदार बाहें,
और आँखें लाल चिंगारी सरीखी,
चुस्त औ तीखी निगाहें,
हाँथ हाथ में घन, और दो लोहे निहाई
पर धरे तू देखता क्या?
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
या किसी नभ देवता नें ध्येय से कुछ
फेर दी यों बुद्धि तेरी,
कुछ बड़ा, तुझको बनाना है कि तेरा इम्तहां इम्तहाँ होता कड़ा है।गर्म लोहा पीट, ठंड़ा ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
एक गज छाती मगर सौ गज बराबर
हौसला उसमें, सही है;
कान करनी चाहिये चाहिए जो कुछ तजुर्बेकार लोगों नें ने कही है;
स्वप्न से लड़ स्वप्न की ही शक्ल में है
लौह के टुकड़े बदलते
लौह का वह ठोस बन कर बनकर है निकलता , जो कि लोहे से लड़ा है।गर्म लोहा पीट, ठंड़ा ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
घन - हथौड़े और तौले हाँथ हाथ की देचोट, अब तलवार गढ गढ़ तू
और है किस चीज की तुझको भविष्यत
माँग करता आज पढ पढ़ तू,
औ, अमित संतान को अपनी थमा जा
धारवाली यह धरोहर
वह अजित संसार में है शब्द का खर खड्ग ले कर लेकर जो खड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
-0-
</poem>