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<poem>
एक बूढ़ा लैंपपोस्ट
खामोश खड़ा है कोने में
वह देखता रहता है
सड़क पर खेल रहे बच्चों को
चौक पर बातें करते थके मजदूरों को
सामने के घर के बरामदे में गृहणियों का गपशप
चाय की दुकान पर दोस्तों की मुलाकात

उस बूढ़े लैंपपोस्ट पर
अटकी है एक कटी हुई पतंग
जो फड़फड़ाती है अपना दुर्भाग्य
वहाँ, बेरोजगार चिड़ियों का घोंसला भी है
पतझड़ में बिना पत्तियों के पेड़ जैसा
रंग उड़ा हुआ यह खम्बा
गली के कोने में वीरान खड़ा है

उस बूढ़े लैंपपोस्ट के नीचे
एक पागल दुखों की जूंएँ गिनते बैठा है
एक भिखारी अन्धेरा ओढ़कर सोता है
एक कुत्ता घाव सहलाता रोता है
एक शराबी आधी रात तक बड़बड़ाता रहता है
सरकार को गाली देता हुआ

इसी रास्ते से होकर
हुल्लड़बाज बूढ़े लैंपपोस्ट को
पत्थर मारकर जाते हैं
बल्बों को तोड़कर भागते हैं
लड़ाई में आँख गुमाया हुआ सिपाही जैसा
फ्यूज्ड बल्ब उठाए
मुरझाया रहता है लैंपपोस्ट

असहाय है अनावृष्टि में छोड़े गए घर की तरह
भूकंप में तबाह हुए गाँव की तरह
नया बल्ब बदला नहीं है
नया रंग-रोगान हुआ नहीं है
खड़ा है एक बूढ़े लैंपपोस्ट की तरह
समय के अन्धेरे में मेरा देश।
</poem>
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