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14 जून {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=चन्द्र गुरुङ
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<poem>
आजकल जब हम मिलते हैं
चेहरे औपचारिकताएँ ओढ़कर आते हैं
दिल बड़ी मुश्किल से खुलते हैं
ज्यादा ही निपुण बनती हैं इतराती ख़ुशियाँ
आजकल जब हम मिलते हैं
होठों पर काग़ज़ी हँसी खिलती है
दुःख-दर्द चुपचाप छिप जाते हैं
कि, प्रकट हो सकते हैं हमारे अभाव
आजकल जब हम मिलते हैं
कृत्रिम मुस्कुराहटों की प्रदर्शनी लगती हैं
कुछ देर अपने-अपने गीतों को गाते
रहती है सब को छूटने की जल्दी
आजकल जब हम मिलते हैं
खिलते नहीं हैं दिलों में फूल।
</poem>