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<poem>
दो पत्तों के बीच हवा रहती है
थोड़ी- सी
जितनी एक साँस में आती है।
मैं खड़ा हूँ
पेड़ की छाया में
सोचता हूँ कि छाया
पेड़ की है या मेरी।
 
पत्ते हिलते हैं
कहते हैं कुछ; पर शब्द नहीं
बस एक धीमी-सी आवाज़
जैसे कोई दूर से
अपना नाम ले रहा हो।
 
मैं हाथ बढ़ाता हूँ
पकड़ना चाहता हूँ हवा को;
पर उँगलियों के बीच
वह फिसल जाती है
जैसे कोई सपना
जो सुबह तक भूल जाता है।
 
दो पत्तों के बीच
मैं भी रहता हूँ
थोड़ा-सा।
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