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<poem>
कड़ी हो धूप तो खिल जाएँ गुलमोहर की तरह
सियाह रात में मिल जाएँ हम सहर की तरह

जो एक बात घुमड़ती रही घटा बनकर
उसे उतार दें धरती पे समन्दर की तरह

कदम बढ़ें तो नये रास्ते निकलते हैं
न घर में बैठिए बेकार-बेख़बर की तरह

वो रास्ता ही सही मायने में मंज़िल है
जहाँ रक़ीब भी चलते हैं हमसफ़र की तरह
</poem>
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