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|रचनाकार=पूनम चौधरी
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नींव की निःशब्द प्रार्थना—
धरती की अतल गहराइयों में समाई,
न चाहती जयघोष,
न माँगती आलोक,
न अपेक्षा कोई आभार की।
वह टिकी रहती है वहाँ,
जहाँ आकाश नहीं रचता चित्र,
जहाँ सूर्य की किरणें नहीं पहुँचती,
फिर भी वह थामे रहती है
संपूर्ण संरचना का आत्मबल।
और शिखर—
दृश्य की देह पर उकेरी गई कीर्ति,
इतिहास के गौरव की सहज व्याख्या।
पाता है असीम प्रशंसा,
नयन झुकते हैं उसके सम्मुख,
गूँजते हैं जयकारों के स्वर।
नींव नहीं दोहराती
अपना ताप, अपना संताप—
न धूप, न वर्षा, न शीत के प्रहार।
पर क्या शिखर जानता है
अपने वैभव का मूल सत्य?
उसे ज्ञात हैं केवल
अपनी ऊँचाइयाँ, अपनी उपलब्धियाँ।
वह बना रहता है
दृष्टियों का ध्रुवबिंदु,
धीरे-धीरे अनभिज्ञ होता जाता है
अपने ही भार की गहराई से।
जब-जब धरती काँपी,
जब-जब पर्वत थरथराए,
हवाओं ने बदली दिशा,
और संतुलन डगमगाया—
तो पहला दोष
नींव के हिस्से आया।
नींव फिर भी मौन रही—
यही था उसका धर्म,
स्थायित्व उसका व्रत।
वह जानती है,
जो धरती से जुड़ा है,
उसे ही उठाना होता है
सच का समूचा भार।
उत्तरदायित्व को
गौरव से ऊपर जीना होता है।
हर शिखर टिका होता है
नींव की अज्ञात वेदना पर,
पर आँखों में आकाश लिए
वह भूल जाता है
धरती की सिक्त साँसें।
किन्तु सृष्टि जानती है—
ध्वज तभी लहराते हैं शिखरों पर,
जब कोई अदृश्य प्रस्तर
उन्हें थामने को तत्पर होता है।
हर ताप, हर क्षरण,
नींव सहती है निर्विकार।
शिखर पाता है दिव्यता,
नींव को मिलता है अंधकार।
फिर भी यथार्थ यही है—
हर शिखर को लौटना होता है
कभी-न-कभी अपनी नींव की ओर,
जैसे पतझड़ का हर वृक्ष
अपनी जड़ों से पूछता है—
“क्या मैं फिर पल्लवित हो सकूँगा?”
नींव कुछ नहीं कहती,
बस और धँस जाती है
मौन की गहराइयों में।
शिखर के टूटने पर लोग रोते हैं,
पर नींव के ढहने पर
सम्भावनाएँ भी साथ चली जाती हैं।
-0-
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नींव की निःशब्द प्रार्थना—
धरती की अतल गहराइयों में समाई,
न चाहती जयघोष,
न माँगती आलोक,
न अपेक्षा कोई आभार की।
वह टिकी रहती है वहाँ,
जहाँ आकाश नहीं रचता चित्र,
जहाँ सूर्य की किरणें नहीं पहुँचती,
फिर भी वह थामे रहती है
संपूर्ण संरचना का आत्मबल।
और शिखर—
दृश्य की देह पर उकेरी गई कीर्ति,
इतिहास के गौरव की सहज व्याख्या।
पाता है असीम प्रशंसा,
नयन झुकते हैं उसके सम्मुख,
गूँजते हैं जयकारों के स्वर।
नींव नहीं दोहराती
अपना ताप, अपना संताप—
न धूप, न वर्षा, न शीत के प्रहार।
पर क्या शिखर जानता है
अपने वैभव का मूल सत्य?
उसे ज्ञात हैं केवल
अपनी ऊँचाइयाँ, अपनी उपलब्धियाँ।
वह बना रहता है
दृष्टियों का ध्रुवबिंदु,
धीरे-धीरे अनभिज्ञ होता जाता है
अपने ही भार की गहराई से।
जब-जब धरती काँपी,
जब-जब पर्वत थरथराए,
हवाओं ने बदली दिशा,
और संतुलन डगमगाया—
तो पहला दोष
नींव के हिस्से आया।
नींव फिर भी मौन रही—
यही था उसका धर्म,
स्थायित्व उसका व्रत।
वह जानती है,
जो धरती से जुड़ा है,
उसे ही उठाना होता है
सच का समूचा भार।
उत्तरदायित्व को
गौरव से ऊपर जीना होता है।
हर शिखर टिका होता है
नींव की अज्ञात वेदना पर,
पर आँखों में आकाश लिए
वह भूल जाता है
धरती की सिक्त साँसें।
किन्तु सृष्टि जानती है—
ध्वज तभी लहराते हैं शिखरों पर,
जब कोई अदृश्य प्रस्तर
उन्हें थामने को तत्पर होता है।
हर ताप, हर क्षरण,
नींव सहती है निर्विकार।
शिखर पाता है दिव्यता,
नींव को मिलता है अंधकार।
फिर भी यथार्थ यही है—
हर शिखर को लौटना होता है
कभी-न-कभी अपनी नींव की ओर,
जैसे पतझड़ का हर वृक्ष
अपनी जड़ों से पूछता है—
“क्या मैं फिर पल्लवित हो सकूँगा?”
नींव कुछ नहीं कहती,
बस और धँस जाती है
मौन की गहराइयों में।
शिखर के टूटने पर लोग रोते हैं,
पर नींव के ढहने पर
सम्भावनाएँ भी साथ चली जाती हैं।
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