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<poem>
क्यूँ बड़गी सोच विचार मैं, बण कीचक की पटराणी ॥टेक॥
कर चलणे की त्यारी झटपट,
म्हारी तेरी होज्या सटपट,
लटपट करूँ हार सिंगार मैं, या साड़ी दिये फैंक पुराणी ।1।
तीळ रेशमी तेरी सिमा द्यूँ,
सच्चे घोटे मैं चितवा द्यूँ,
ला द्यूँ बान्दी दो चार मैं, क्यूँ करती टहल बिराणी ।2।
एक-सौ-पाँच बणै देवर तेरे,
जिस कमरे मैं हों म्हारे डेरे,
मेरे पिंलग सेज रंगदार मैं, नीचै लग रही कमाणी ।3।
निहालचन्द नए छन्द घड़ैं रै,
जड़ै लड़ैं उड़ै कर्म लड़ैं रै,
तनै नहीं पड़ैं रै, बेकार मैं, दर-दर की ठोकर खाणी ।4।
</poem>
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