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आग का अपना-पराया क्या ?
तुम जहां जहाँ देखो लगी उसको बुझाओ , और घर की आग का सन्देश जाकर,हो सके तो आँधियों को मत सुनाओ
आग का अपना-पराया क्या ?
हो गया है पीदीयों पीढ़ियों का रक्त पानी , शीर्षक से हट गई सारी कहानी,भृंग बनकर फूल पर मंडरा मण्डरा रहे हैं,वासना के उत्सवों मे गा रहे हैं नियम-संयम के नगर मे लौटकर अब,द्रष्टि पर तुम लाज का पहरा बिठाओ
आग का अपना-पराया क्या ?
ज़िन्दगी मिलती नहीं है दूध-धोई , त्याग की अब आग मे तपता न कोई,स्वार्थ का हर सांस पर पहरा हुआ है,न्याय डर से लोगों के बहरा हुआ है , ज्ञान का काजल लगाकर आँख में अब , आज घर की आग से घर को बचाओ
आग का अपना-पराया क्या?
राख बनकर रह न जाए घर हमारा , आग से बढकर हमे हमें है डर तुम्हारा , देश का नैतिक पतन उत्थान पर है , सभ्यता इस देश की प्रस्थान पर है , आचरण बिलकुल अपावन हो चुके हैं , हो सके तो आदमी बनकर दिखाओ
आग का अपना - पराया क्या?
देश का धन लूटकर घर भर रहे हैं , किन्तु बे वे चर्चा पराई कर रहे हैं,आग है चारों तरफ पानी नहीं है , एक भी बादल यहाँ दानी नहीं है , तुम धरा की प्यास पर बरसो न बरसो,इस चमन पर बिजलियाँ तो मत गिराओ
आग का अपना-पराया क्या?
लेखनी कब से प्रभाती गा रही है , किन्तु तुमको नींद आती जा रही है,धुप धूप को तुम सर चिढाते चढ़ाते जा रहे हो,भोर पर परदे गिरते गिराते जा रहे हो , देश के तुम हो,तुम्हारा देश है तो,झोंपड़ी से सूर्य का परिचय कराओ
आग का अपना - पराया क्या ?
साधना मे में उम्र को खोया गया है , इन बिचारों विचारों को बहुत धोया गया है , हो गया है प्राण का जब दर्द- वंशी,तब ग़ज़ल और गीत को बोया गया है , देश के हित के लिए हम लिख रहे हैं , हो सके तो साज़ लेकर साथ गाओ
आग का अपना-पराया क्या?
फूल-कांटे काँटे साथ होते हैं चमन मेमें,किसलिए उत्पात का है ज्वार मन में , खो गए श्रृंगार शृंगार में सब गाँव-गलियाँ , निरवसन होने चलीं हैं आज कलियाँ , सभ्यता सरिता किसी भी देश की हो , तुम न उसके घाट पर नंगे नहाओ
आग का अपना-पराया क्या?
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