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{{KKRachna
|रचनाकार=रसूल हमज़ातफ़
|अनुवादक=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
गर किसी तौर हर इक उल्फ़ते-जानां का ख़्याल
शे'र में ढल के सना-ए-रुख़े-जानाना बने
फिर तो यूँ हो कि मेरे शेरो-सुख़न का दफ़्तर
तूल में तूले-शबे-हिज़्र का अफ़साना बने
है बहुत तिशन: मगर नुसख:-ए-उल्फ़त मेरा
इस सबब से के: हर इक लमहः-ए-फ़ुर्सत मेस
दिल ये कहता है के: हो कुर्बते जानां में बसर
</poem>
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|अनुवादक=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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गर किसी तौर हर इक उल्फ़ते-जानां का ख़्याल
शे'र में ढल के सना-ए-रुख़े-जानाना बने
फिर तो यूँ हो कि मेरे शेरो-सुख़न का दफ़्तर
तूल में तूले-शबे-हिज़्र का अफ़साना बने
है बहुत तिशन: मगर नुसख:-ए-उल्फ़त मेरा
इस सबब से के: हर इक लमहः-ए-फ़ुर्सत मेस
दिल ये कहता है के: हो कुर्बते जानां में बसर
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