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दीप का धर्म / पूनम चौधरी

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दीप
नहीं बाँटते प्रकाश,
वे करते है आलोकित
दूसरों का पथ
अपनी आत्मज्वाला से।

ये मात्र देह का उत्सर्ग नहीं;
बल्कि
अपने अस्तित्व का अर्घ्य
चढ़ाना है
किसी अपरिचित तम को
हटाने के लिए।

दीप हैं वे—
मृत्तिका से गढ़े,
तेल से संचित,
परंतु
न तो देह उनकी
न ज्वाला।

जब अग्नि स्पर्श करती है,
तो किसी और की उँगलियाँ होती हैं,
और जब बुझते हैं,
तो उनका मौन
तमस् के अधीन होजाता है,
बिना प्रतिवाद,
बिना किसी उत्तर की आकांक्षा के।

वे जीते नहीं—
अपने लिए।
उनके प्राण
दूसरों की प्रार्थनाओं में लयबद्ध हैं—
कभी
किसी शिखर पर देवता के सम्मुख,
कभी
गृहद्वार के मौन अंधकार में।
उनकी ज्वाला
जब तक तेल की एक बूँद भी शेष हो—
स्वयं को
करती रहती है विलीन
श्वास के स्पंदन में।

और अंत?
न कोई विदाई,
न कोई श्रद्धा,
केवल
एक राख,
एक मौन स्मृति,
एक अपूर्ण कथा

दीप,
चुप्पी में अनकही
अग्नि समाहित
एक श्रम,
एक स्वप्न,
एक अस्तित्व,
जो जानता था त्याग,
समर्पण
बस नहीं सीखता
याचना और
माँगना
-0-
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