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<poem>
उफनकर ख़ौफ़ बर्बादी के मंज़र तक पहुँचता है
जो दरिया शांत रहता है वह सागर तक पहुँचता है

कभी जब रौशनी से डरने लगे जाओ तो आ जाना
तुम्हारे घर से इक रस्ता मेरे घर तक पहुँचता है

गिले-शिकवे तो ख़ैर अब करके भी क्या है फ़क़त तुझसे ?
ये कहना था कि दिल का दर्द अब सर तक पहुँचता है

तड़प, अहसास, ऑंसू, ग़म, दुआएँ, ज़ख़्म, ख़ामोशी
नहीं आता है जो बाहर वह अंदर तक पहुँचता है

तू मेरे लड़खड़ाते जिस्म पर मत जा ऐ मेरी जाँ
मुहब्बत का नशा आँखों से ऊपर तक पहुँचता है
</poem>
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