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गम के ख़ुशी के दौर / विनीत पाण्डेय

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गम के ख़ुशी के दौर यहाँ हर किसी के हैं
ये फलसफे अजीब से इस ज़िन्दगी के हैं
सोचें परिंदे देख के ऊँची इमारतें
दड़बे कबूतरों के नहीं आदमी के हैं
भटकाव, जुर्म, दर्द, नशा, ग़म में जिन्दगी
अंजाम कच्ची उम्र में ये दिल्लगी के है
लाशें तो आँकड़े हैं सियासत के वास्ते
आँसू जो बह रहे हैं किसी अजनबी के हैं
कब तक छुपोगे गुजरे ज़माने की आड़ में
उन पर करो न बात जो मुद्दे अभी के है
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