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25 अगस्त {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=देवेश पथ सारिया
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<poem>
मैं न्यूयॉर्क के बारे में ज़्यादा नहीं जानता था
कोर्स की किताबों के बाहर
उस शहर के बारे में पढ़ा पहली बार
ग्यारह सितंबर की घटना के बाद
मेरे भीतर भी ध्वस्त इमारतें हैं
अंदरूनी तौर पर
मैं न्यूयॉर्क के बारे में जानता था उतना ही
जितना फ़िल्मों और टीवी में देखा
वह तो भला हो 'फ्रेंड्स' का
वरना फ़िल्में देखने के कुछ दिन बाद
गड्डमड्ड हो जाते हैं उनमें दिखाए शहरों के नाम
मुझे नहीं मालूम
वह कब पहुॅंचती थी न्यूयॉर्क
किन लोगों से मिलती थी
मुझे पता चलता उसके लौटते वक़्त
एयरपोर्ट पर बोरियत से बचने को
जब वह मुझे फ़ोन मिलाती थी
वह उसे अपना प्रिय शहर कहती थी
मुझे ठीक से नहीं मालूम क्यों कहती थी
"यह बहता हुआ शहर है"
ऐसा कहा उसने एक बार
और मुझे याद आई
काठगोदाम से ज्योलीकोट के रास्ते में
बहती एक नदी
जब उसने कहा :
"यह स्ट्रीट फोटोग्राफी के लिए स्वर्ग है"
मैं चीड़ के पेड़ों की बग़ल से गुज़रा
और सड़क पर जा पहुँचा
कंकर फेंक मैंने बंदरों को रास्ते से हटाया
उसने मुझे बताया
न्यूयॉर्क के बेघर लोगों के बारे में
और मैंने बीस रुपए दिए
उस शाम एक शराबी को
जो दिन भर
बस स्टैंड से पर्यटकों को घेरकर
सस्ते होटलों तक पहुँचाने के एवज में
बीस रुपए प्रति कमरा बुकिंग पाता था
जब उसने पूछा :
"तुम्हें पता है, टाइटेनिक न्यूयॉर्क जा रहा था?"
उस वक़्त इस बात को मैं भूला हुआ था
मैंने कहा : "डूबता-उतराता पहुँच जाऊँगा"
इसके बाद उसने मुझे
न्यूयॉर्क के बारे में कुछ और नहीं बताया
मैं न्यूयॉर्क के बारे में ज़्यादा नहीं जानता था।
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