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इक कैदी को हुई थी फाँसी
रात आखिरी थी वो उसकी
फिर महबूबा मिलने आई
और संग सिंदूर भी लाई
चुटकी भरकर कैदी ने सिंदूर से उसकी माँग भरी
एक कहानी में दोनों का यही लिखा था मिलन आखिरी

थाल आरती का था रोया माचिस जल ना पाई थी
फिर भी जीत लिया हो जग को ऐसे तिलक लगाई थी
मस्तक का टीका भी रोया रोई चार दीवारी थी
बिंदिया कंगन झुमका रोया रोई हर तैयारी थी

फिर मुस्कान लिए चेहरे पर दुल्हन ऐसे मुस्काई
जैसे मरने से पहले बस उसका था यह स्वप्न आखिरी

घाव देखकर प्रिय के तन पर लगी काँपने थर-थर-थर
प्रीतम ने ढाढस बाँधा फिर जकड़ा बाँहों में भरकर
मौन सिसकियों नें लोहे की जंजीरों को तोड़ दिया
अधरों को अधरों पर रखकर दोनों ने दम तोड़ दिया

साया छूटा तन भी छूटा साथ छूट ना पाया था
गगन मौन था धरा मौन थी दोनों की थी छुअन आखिरी
</poem>
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