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{{KKRachna
|रचनाकार=देवेन्द्र भूपति
|अनुवादक=राधा जनार्दन
|संग्रह=
}}
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<poem>
मुझे कह सकते हो — कदली का पेड़
फूलने के पूर्व पत्ते काटे गए !
फिर भी मैं नव कोंपलों संग नीचे से उदित हुआ
केले के गुच्छे निकालता, नन्हे पौधे पालता…
पीढ़ी दर पीढ़ी वाली समृद्ध परम्परा का मैं भी हूँ !
फलों को खाने बन्दर, तन से निकले तारों में गूँथने फूल
तने से पकाने को खाद्य सामग्री,
मूल कन्द में बसती मेरी बुद्धि
ज़मीन ढीली कर, जड़ें गहरी जमा, हवाओं के झोंके सह,
आकाशोन्मुख ताकती और सारा दाह होता द्रवीभूत ।
जानता नहीं छाँह के काम आ सकूँगा या नहीं
एक बार एक पीढ़ी के लिए ज़िन्दा रहता हूँ
अपने विकास के किसी एक चरण में
मैंने बन्दरों को मानव में बदलते देखा,
मानव को भगवान भी होते देखा,
देखा नहीं तो वृहद् बड़ के बीजों को
उनकी शून्यता को, फिर किसी अलाभकारी अस्तित्व को !
'''मूल तमिल से अनुवाद : राधा जनार्दन'''
</poem>
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मुझे कह सकते हो — कदली का पेड़
फूलने के पूर्व पत्ते काटे गए !
फिर भी मैं नव कोंपलों संग नीचे से उदित हुआ
केले के गुच्छे निकालता, नन्हे पौधे पालता…
पीढ़ी दर पीढ़ी वाली समृद्ध परम्परा का मैं भी हूँ !
फलों को खाने बन्दर, तन से निकले तारों में गूँथने फूल
तने से पकाने को खाद्य सामग्री,
मूल कन्द में बसती मेरी बुद्धि
ज़मीन ढीली कर, जड़ें गहरी जमा, हवाओं के झोंके सह,
आकाशोन्मुख ताकती और सारा दाह होता द्रवीभूत ।
जानता नहीं छाँह के काम आ सकूँगा या नहीं
एक बार एक पीढ़ी के लिए ज़िन्दा रहता हूँ
अपने विकास के किसी एक चरण में
मैंने बन्दरों को मानव में बदलते देखा,
मानव को भगवान भी होते देखा,
देखा नहीं तो वृहद् बड़ के बीजों को
उनकी शून्यता को, फिर किसी अलाभकारी अस्तित्व को !
'''मूल तमिल से अनुवाद : राधा जनार्दन'''
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