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<poem>
एक याद को बचाने के लिए
कितनी यादों पर धरना पड़ता है पाँव
कितने दशक, कितने अन्तराल, कितनी सीमाएँ
लाँघनी पड़ती हैं
तब तक बिखर चुकी होती है चूल्हे की राख
टूट चुका होता है घर
फिर भी यादों की फूलती शाम में
बारिश अक्सर भिगो देती है
बालों का गुच्छा
माँ-पिता के युवा चेहरे
रास्ते में ओट लिए हुए मकान का आँगन
उसकी कच्ची दीवारें
घास से भरी खचिया
चमकता खुरपा

शाम के ताखे में
कुछ सान्त्वना-सा
हर बार बचा ही रहता था हमारे लिए
जैसे कि थोड़ा गुड़, कोई बर्फ़ी का टुकड़ा या चिरौंजी के दाने, मलीदा
या मीठे पानी से भरा गिलास – दूध की महक, कोई जुगनू
या दो जोड़ी आँखें जो हमें देखकर अँधेरे में भी चमक पड़तीं...

दिन भर की मटरगश्ती और भूख के दरमियान
कितनी-कितनी बार जलता बुझता था दिल
कितनी बार अटकती थी साँस
खेल के निर्णायक क्षणों में
रोमाँच से उबल पड़ता था चेहरा

शाम से ही नल चलाने की आवाज़ आती रहती
जब-जब कोई पैर धोता या थोड़ा पानी गटकता –
पटिया हर बार खड़कती
शाम अपनी दुशाला ओढ़े खड़ी रहती
और फूल जाती अच्छी तरह
जब कहानियों के मरुस्थल में खो जाता था हमारा नायक
और उसके घोड़े की टाप दूर तक सुनाई पड़ती
और खो जाती थी कहीं किसी अनजान तिलिस्म के पार

दूध वाला उठावन पहुँचाने, ऐन बीच में टपक पड़ता
और फोंकराइन गन्ध से भर जाता दुवार
पशुओं की तेज़ सांसों और लकड़ी जलने की ख़ुशबू के बीच
सुनाई पड़ जाती किसी बूढ़े के खाँसने
और कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें
शाम अलमारी के रंगीन काग़ज़ पर
उस आम की तरह,
बिराजमान हो जाती
जो दिखते-दिखते अचानक खो जाता था कहीं,
हम उसे ढूँढ़ते
खड़होंड़ते यहाँ-वहाँ
या रातरानी की तरह आँगन पर छा जाती
और शीत की तरह
हमारी कल्पनाओं पर गिरती रहती अनन्तकाल तक...

पिता अपनी डिस्पेंसरी से घर आकर
घरेलू कामों में जुटे होते, खाट की ओड़चन कसते
या कोई किताब बाँचते
और दादा ज्योतिषी की तरह आसमान ताकते
अपनी गणनाओं में व्यस्त रहते
कुछ बुदबुदाते, हिसाब लगाते, रेडियो सुनते, धीरे-धीरे खाना खाते

हाबुड़-ताबुड़ कुछ भी न घटता
धीमी आँच पर सब कुछ अँवटता रहता
पत्ते भी अलसाये हुए डोलते
गाय के डँकरने की आवाज़ धीमी पड़ती जाती
घोड़े की दुलकी चाल के साथ
हम झपकियाँ लेने लगते
और सपने की तरह रात
हम पर पूरी तरह छा जाती ।
</poem>
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