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| रचनाकार= कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह
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काला है, मगर सुन्दर है,
और चमकता भी खूब है -
करैत जैसा सुन्दर कोई और साँप नहीं है।

करैत बिना घर के होता है।
आर-डॅरार हो,
चूहे का बिल हो
या फिर और कोई दरार -
जहाँ जगह मिलती है,
घर कर लेता है।

गेहुमन-सा तन कर खड़ा नहीं होता।
वैसे, विष उसका कम नहीं होता है।

करत हमला नहीं करता,
केवल दबने पर काटता है।
फिर भी,
गेहुमन शरीफ़
और करैत बदमाश समझा जाता है -
लोग गेहुमन से ज्यादा करत से
डरते हैं।

मैंने
करैत को
आँख बचाकर निकल जाते देखा है।
चलता चला जाता है -
मुड़कर पीछे नहीं देखता।
उसकी चमचमाती पीठ
भय से ज़्यादा
आकर्षण पैदा करती है,
और हाथ की लाठी हाथ में रह जाती है।

करैत मेरा मित्र नहीं,
पर शत्रु भी नहीं है।
करैत मुझे बहुत करीब -
अच्छा लगता है,

और मैं
काटे जाने का खतरा होने पर भी
हाथ की लाठी फेंक
उसकी जगह
करैत को उठा लेना चाहता हूँ।

६ नवम्बर '८६
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