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<poem>
साँवली सलोनी तू कहाँ गयी सावन में
द्रिग-द्रिग-धा बूँद थिरके हैं मेरे आँगन में,
बूँदों की डोर पकड़ आ जाओ पार इधर
फिर से ना बीत जाए रीते दिन सावन में।

तड़-तड़-तड़ ताड़ों के पत्ते अब बजते हैं
जुगनुओं के झुण्ड हरे वृक्षों पर सजते हैं,
मेंढकों के टर्-टर् स्वर चहुँओर मचते हैं
टिप्-टिप् ओसारे के नीचे स्वर जगते हैं;
प्यारी तू आओ न! मौसम मन-भावन में। फ़िर से ना

गरज-गरज बादल सोते से जगाता हैं
छिंटका बिजलियों को याद तेरी लाता है,
साँय-साँय झम्प-झपर झंझानिल आता है
कहीं सुप्त कोषों में नाम सुलग जाता है;
सपनीला फूल खिला दो ना मन पावन में। फ़िर से ना

तू हो तो सावन सलोना बन जाता है
तू हो तो दावानल सोना बन जाता है,
तू हो तो दिल का हर कोना सज जाता है
तू हो तो सुरधनु आखों में तन जाता है
अब तो जला दो अगन तरल-सरल साजन में। फ़िर से ना
</poem>
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