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|रचनाकार=अमरकांत कुमर
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आवारा बंजारा गाओ गीत ज़रा जीवन के भी
कुछ मेरे मन की सुन लेना, कह कुछ अपने मन के भी।
सतरंगे पंखों वाली पंछी का गान सुना जाओ
उमड़-घुमड़ते बादल काले बीच तड़ित चमका जाओ ,
थिरक रही बूंदों की रिमझिम कृषकों-सा मुस्का जाओ
बाग-बगीचे, खेत-मेड़ सबको करुणा से नहलाओ
रोप रही सुन्दरियों की कजरी में कह दुख मन के भी॥ आवारा
शरद हास, उल्लास तुम्हारे शब्दों में अंगड़ाई ले
कुसुम-गंध जीवन स्तर को महकाए ये पूर्वाई ले ,
पूनों की चांदनी सरीखी तालों में परछाई ले
आते पाखी दूर देश से हंसों की अगुवाई ले ।
पंछी के कलरव में घोलो मधुरगीत वन्दन के भी । आवारा
गाओ तो मधुरितु के गाने अनुरागी मन से प्यारे
कुसुम- कुसुम पर भ्रमर-भ्रमर ने गुनगुन स्वर में दिल हारे ,
कोयल की मधुतान सुनाओ, खंजन नाच भले, न्यारे
विरहिणियों की कसक कहो कुछ, यक्षप्रिया के अश्रु खारे ।
कहो कथा स्वर्णिम क्यारी की, कृषकों के ख़ुश क्षण के भी॥ आवारा
परदेशी का हाल सुनाओ, प्रोषितपतिका की पीड़ा
सम्मुख देख बसन्त पाहुने पार्वती-कलि की ब्रीड़ा ,
सरसों के पीले फूलों संग अलसी नीली की क्रीड़ा
बाट जोहती सुलग रही नायिका किसी की मन धीरा ।
पथराई बूढ़ी आँखों में तिरती आशा और जन के भी॥ आवारा
खाने को दाने लाते जो चुन-चुन कर के खेतों से
बीना करते कौड़ी-कौड़ी जो नदियों की रेतों से ,
बिना रीढ़ के जीवन जिनका झुकना पड़ता बेतों-से
जो कोल्हू के बैल-से खटते रहते हैं संकेतों से ।
बिटिया की बारात आगे नत जनकों के क्रन्दन के भी॥ आवारा
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आवारा बंजारा गाओ गीत ज़रा जीवन के भी
कुछ मेरे मन की सुन लेना, कह कुछ अपने मन के भी।
सतरंगे पंखों वाली पंछी का गान सुना जाओ
उमड़-घुमड़ते बादल काले बीच तड़ित चमका जाओ ,
थिरक रही बूंदों की रिमझिम कृषकों-सा मुस्का जाओ
बाग-बगीचे, खेत-मेड़ सबको करुणा से नहलाओ
रोप रही सुन्दरियों की कजरी में कह दुख मन के भी॥ आवारा
शरद हास, उल्लास तुम्हारे शब्दों में अंगड़ाई ले
कुसुम-गंध जीवन स्तर को महकाए ये पूर्वाई ले ,
पूनों की चांदनी सरीखी तालों में परछाई ले
आते पाखी दूर देश से हंसों की अगुवाई ले ।
पंछी के कलरव में घोलो मधुरगीत वन्दन के भी । आवारा
गाओ तो मधुरितु के गाने अनुरागी मन से प्यारे
कुसुम- कुसुम पर भ्रमर-भ्रमर ने गुनगुन स्वर में दिल हारे ,
कोयल की मधुतान सुनाओ, खंजन नाच भले, न्यारे
विरहिणियों की कसक कहो कुछ, यक्षप्रिया के अश्रु खारे ।
कहो कथा स्वर्णिम क्यारी की, कृषकों के ख़ुश क्षण के भी॥ आवारा
परदेशी का हाल सुनाओ, प्रोषितपतिका की पीड़ा
सम्मुख देख बसन्त पाहुने पार्वती-कलि की ब्रीड़ा ,
सरसों के पीले फूलों संग अलसी नीली की क्रीड़ा
बाट जोहती सुलग रही नायिका किसी की मन धीरा ।
पथराई बूढ़ी आँखों में तिरती आशा और जन के भी॥ आवारा
खाने को दाने लाते जो चुन-चुन कर के खेतों से
बीना करते कौड़ी-कौड़ी जो नदियों की रेतों से ,
बिना रीढ़ के जीवन जिनका झुकना पड़ता बेतों-से
जो कोल्हू के बैल-से खटते रहते हैं संकेतों से ।
बिटिया की बारात आगे नत जनकों के क्रन्दन के भी॥ आवारा
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