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|रचनाकार=अमरकांत कुमर
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}}
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<poem>
माँ शारदे! वरदान दो
सबको अभय का दान दो॥
सबको अवगम दो समय का
ज्ञानानुशासन विजय का,
सद्भाव दो, सद्-राग दो
वर पराजित को उदय का।
कण-कण में बिखरे ज्ञान को
सम्प्राप्ति का संज्ञान दो॥ माँ शारदे
यह मनुज संसृति खिल उठे
तो दनुज संसृति हिल उठे,
फिर मनुजता लहरा उठे
फिर ज्ञान- दीपक जल उठे ।
एक निराशा है पल रही
आसों का शत संधान दो। माँ शारदे
वीणा की नव झंकार से
भागे तिमिर संसार से,
हंसासना, पद्मासना
शोभित ग्रीवा सित-हार से ।
स्रगहस्त! पुस्तक हस्त है
जग को तो निर्मल ज्ञान दो॥ माँ शारदे
</poem>
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माँ शारदे! वरदान दो
सबको अभय का दान दो॥
सबको अवगम दो समय का
ज्ञानानुशासन विजय का,
सद्भाव दो, सद्-राग दो
वर पराजित को उदय का।
कण-कण में बिखरे ज्ञान को
सम्प्राप्ति का संज्ञान दो॥ माँ शारदे
यह मनुज संसृति खिल उठे
तो दनुज संसृति हिल उठे,
फिर मनुजता लहरा उठे
फिर ज्ञान- दीपक जल उठे ।
एक निराशा है पल रही
आसों का शत संधान दो। माँ शारदे
वीणा की नव झंकार से
भागे तिमिर संसार से,
हंसासना, पद्मासना
शोभित ग्रीवा सित-हार से ।
स्रगहस्त! पुस्तक हस्त है
जग को तो निर्मल ज्ञान दो॥ माँ शारदे
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