भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatKavita}}
<poem>
पंचतत्व ही तो थे मेरी निर्मिती निर्मिति के आधार
कहते हैं कि वे कभी चुकते नहीं
असंतुलित तो कभी होते ही नहीं
लंपट हो रहा आकाश
मैं डरी सहमी-सी देख रही हूँ
अपनी देह से बूंदबूँद-बूंद बूँद रिसता तत्व तत्त्व जल
कितनी भयावह दीख रही हूँ मैं, ख़ुद को
सूखे अकड़े दंड-सी
मात्र एक तत्व तत्त्व के बिना, अधूरे तत्वों तत्त्वों मेंक्या यूं यूँ ही झरने लगेंगे मेरी देह सेएक-एक कर सब तत्वतत्त्व
और फिर मैं नहीं ले सकूँगी कोई भी आकार
आकार, जो होता है मुक्ति पथ का द्वार
भटकती फिरूंगी यूं फिरूँगी यूँ ही निराकार
बात यहीं ख़त्म होती तो फिर भी ठीक था
पर पंचतत्व पंच तत्त्व तो एक-एक करएककर
झरने लगेंगे सभी की देहों से
एक दिन।
</poem>
