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कौंधे थे कबीर –
रह गई थी इस पार
बिन लिखी प्रेम कविता के साथ '''ग्रीष्म''' की तन झुलसाती रात्रियाँ भी खो दी थीं तुमनेसब की सब, एक के बाद एक प्रेम की फुहारें बरसाए बगैर ही मैं उन घमकती गर्मियों वाली रात्रियों को कर देना चाहती थी शीतल, आषाढ़ की नवेली बदलियों पर
लिखकर एक प्रेम कविता
तुम थे सदा की तरह हर रात्रि
नदी के उस पार
और आषाढ़ की नवेली बदलियों ने नकार दिया था मेघदूत होना
मैं '''पावस''' की सुरमई छत से गिरी गीली बूँदों को
छिड़कना चाहती थी रूखे मन की रेत पर
ताकि तुम पर धूल ना उड़ सके मेरे मन के सूखे गलियारों की और लिख सकूँ मैं एक प्रेम कविता अनवरत छनकती बूँदों वाली, पावस की एक अष्टमी को आकंठ डूबकर राधा के प्रेम में,
पृथ्वी पर उतरना यशोदा नन्दन बने नारायण का
मुझमें उड़ेलता था प्रेम की अगाध राशि
जगाता था प्रेम में अविरल विश्वास पर तुमने चुना हर रात उस नर चक्रवाक की तर्ज पर , सुनार नदी का वही दूसरा किनारा और अधूरी रही मेरी वह प्रेम कविता सुनो, शरद की उन मखमली सर्दियों वाली खुद की पुनरावृत्ति करती अनगिनत, कोमल रात्रियों में
फिर लिखनी चाही थी मैंने वह प्रेम कविता
उस रात्रि रोकना चाहती थी मैं तुम्हें सुनार नदी के इस पार जीत जाना चाहती थी तुम्हारे उस पार जाने वाले निर्दय नियम से जैसे जीत गए थे अयोध्याकुमार बुराई के विरुद्ध लड़ा गया एक युद्ध शरद ऋतु की आधे – अधूरे चाँद वाली दशमी को पर तुम्हें रोक लेने के जतन का रहस्य बताने को मुझे नहीं मिला था कोई एक भी विभीषण और तुम चल दिये थे हर बार की तरह शरद की उन मखमली सर्दियों में भी नदी के उस पार तुम क्या जानो उस रात्रि तिरिस्कृत तिरस्कृत होकर कितना कसमसाई थी मेरी वह अलिखित प्रेम कविता '''शिशिर''' की तुम्हारी पसंदीदा महारात्रियों में सहेजकर ढेर सारे ओस के नरम फूल गूँथ लेना चाहती थी मैं अपनी वेणी में करना चाहती थी सोलह शृंगार पर तुम किसी एक रात्रि भी तो ठहरे नहीं थे सुनार नदी के इस पार शिशिर की महारात्रियों में सहेजे वे ओस के नरम फूल
आ बसे थे मेरी आँखों की कोर में
किसी अनमोल गहने की तरह जिन्हें मैंने कभी नहीं चाहा था सहेजना पर आँखों ने ही खुद नकार दिया था उन्हें कोर से गिराया जाना वे सहेजे रखना चाहती थीं आशा चाँद रहित उस रात्रि की
जिस रात्रि, तुम रुक जाते सुनार नदी के इस पार
पर तुम नियम से बँधे चल दिए हर साँझ के ढलते ही नदी के उस पार फिर एक बार, रह गई थी प्रतीक्षित मेरी वह रस भरी प्रेम कविता '''हेमंत''' की हनक के साथ ही मुझमें फिर पनपी थी प्रेम लहर - सी कोई एक कविता धड़क उठी थी मन की मृदंग पर थाप - सीजगमगा उठी थीं कई दिवालियाँ अगहन की अँअंधियारी अँधियारी रात में पर उन दिवालियों में भी तुम नहीं रुके थे, सुनार नदी के इस पार और रह गई थी बिना लिखी ही वह प्रेम कविता छहों ऋतुओं के खाली हाथ निकल जाने पर भी जड़ी रही थी बरसों - बरस
मेरे मन की भीत पर वह प्रेम-पगी मीठी कविता
तब भी जब तुमने मिलाई थी अपनी चाल
रात्रिकालीन वियोग परम्परा से निबद्ध, गोधूलि में ही ओझल हो जाने वाले सूरज से कई बार सोचती हूँ मैं क्या सूरज भी होता है चक्रवाक ही हंस का कोई विरल नातेदार
और होती है धरती कोई बड़ी सी सुनार नदी
हर साँझ चला जाता है सूरज चक्रवाक इस बड़ी सुनार नदी - सी धरती के उस पार और किसी भी रात्रि नहीं पग पाते हैं मेरे शब्द प्रेम की चाशनी में नहीं लिख पाती हूँ मैं किसी रात भी कोई प्रेम कविता पर कोई एक रात्रि है जो काट देगी हर वो रज्जु जो तुम्हें करती है निबद्ध नियमों से तब मैं चन्द्र रहित अर्धरात्रि में तुम्हारे प्रेम के आलोक में लिख लूँगी
वह प्रतीक्षित प्रेम कविता…
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