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{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
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}}

<Poem>
फूल के बाद फलना ज़रूरी लगा,
भूमिकाएँ बदलन ज़रूरी लगा।
::दर्द ढलता रहा आँसुओं में मगर
::दर्द शब्दों में ढलना ज़रूरी लगा।
'कूपमंडूक' छवि को नमस्कार कर,
घर से बाहर निकलना ज़रूरी लगा।
::अपने द्वंद्वों से दो-चार होते हुए,
::हिम की भट्टी में जलना ज़रूरी लगा।
मोमबत्ती से उजियार की चाह में,
मोम बन कर पिघ्हलना ज़रूरी लगा।
::उनके पैरों से चलकर न मंज़िल इली,
::अपने पँवों पे चलना ज़रूरी लगा।
आदमीयत की रक्षा के परिप्रेक्ष्य में
विश्व-युद्धों का टलना ज़रूरी लगा।
</poem>