<span class="upnishad_mantra">
::युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे।<br>::सुवर्गेयाय शक्त्या॥२॥<br>
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::कहीं मूल कारण काल को कहीं प्रवृति को कारण कहा,<br>::कहीं कर्म कारण तो कहीं, भवितव्य को माना महा,<br>::पाँचों महाभूतों को कारण, तो कहीं जीवात्मा,<br>::पर मूल कारण और कुछ, जिसे जानता परमात्मा। [ २ ]<br><br>
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::युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।<br>::वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः॥४॥<br>
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::यह विश्व रूप है चक्र उसका , एक नेमि केन्द्र है,<br>::सोलह सिरों व् तीन घेरों, पचास अरों में विकेन्द्र है।<br>::छः अष्टको बहु रूपमय और त्रिगुण आवृत प्रकृति है,<br>::इस विश्व चक्र में सम अरों, अंतःकरण की प्रवृति है। [ ४ ]<br><br>
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::अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते।<br>::सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र सञ्जायते मनः॥६॥<br>
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::त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य।<br>::ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयानकानि॥८॥<br>
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::प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत।<br>::दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः॥९॥<br>
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::समे शुचौ शर्करावह्निवालिका विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः।<br>::मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत्॥१०॥<br>
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::पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।<br>::न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥१२॥<br>
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::यथैव बिंबं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम्।<br>::तद्वाऽऽत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः॥१४॥<br>
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::एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः।<br>::स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥१६॥<br>
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