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काले कपोत / अशोक कुमार पाण्डेय

12 bytes added, 07:39, 16 दिसम्बर 2008
किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में
उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों
की निस्सीम उडान उड़ान को आतुर
शरारती बच्चों से चहचहाते
धवल कपोत नही हैं ये
किसी उदास भग्नावशेष के अन्तःपुर की
शमशानी शान्ति में जीवन बिखेरते पखेरू भी नही
न किसी बुजुर्ग गिर्हथिन गिरहस्थिन के
स्नेहिल दाने चुगते चुरगुन
मंदिरों के शिखरों से मस्जिदों के कंगूरों तक
उड़ते निशंक
शायरों की आंखों आँखों के तारे
बेमज़हब परिंदे भी नही ये
निःशक्त परों के सहारे पड़े निःशब्द
विदीर्ण ह्रदय के डूबते स्पंदनों में
अँधेरी आंखों अंधेरी आँखों से ताकते आसमान
गाते कोई खामोश शोकगीत
बारूद की भभकती गंध में लिपटे
ये काले कपोत !
कहाँ -कहाँ से पहुंचे पहुँचे थे यहाँ बचते -बचाते
बल्लीमारन की छतों से
बामियान के बुद्ध का सहारा छिन जाने के बाद
गोधरा की उस अभागी आग से निकल
बडौदा बड़ौदा की बेस्ट बेकरी की छतों से हो बेघर एहसान जाफरी जाफ़री के आँगन आंगन से झुलसे हुए पंखों से उस हस्पताल के प्रांगन प्रांगण में ढूँढते ढूंढते एक सुरक्षित सहारा
शिकारी आएगा - जाल बिछायेगा - नहीं फंसेंगे फँसेंगे
का अरण्यरोदन करते
तलाश रहें हो ज्यों प्रलय में नीरू की डोंगी