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'''लेखन वर्ष: १३/अप्रैल/२००३'''<br/><br/>
कहाँ है वो चेहरा, गुलाबी चेहरा<br/>
जिसको देखकर चाँद भी रश्क़ करता है<br/>
कहाँ हैं वो ज़ुल्फों की लटें<br/>
जो तेरे माथे पे सबा के साथ मचलती हैं<br/>
उन्स करती हैं…<br/><br/>

कहाँ है वो तेरे माथे की छोटी-सी बिंदिया<br/>
जिसका गहरा रंग तेरे हुस्न में चार चाँद लगाता है<br/>
कहाँ हैं वो आँखें झील-सी गहरी आँखें<br/>
जिनकी खा़हिश में हर रात खा़बीदा हुआ करती है<br/><br/>

कहाँ हैं वो लब जो तितलियों के परों से नाज़ुक़ हैं<br/>
छोटी-छोटी बात पे खिलते हैं<br/>
कहाँ हैं वो गुलाबी रोशनाइयाँ<br/>
जिनसे सुबह होती है, कलियाँ चटकती हैं’ महकती हैं<br/><br/>

कहाँ हैं वो हाथ, मरमरीं हाथ<br/>
जिन्हें मेरे हाथों में होना चाहिए<br/>
कहाँ हैं वो पाँव, हसीन पाँव<br/>
जिन्हें मेरे घर की फ़र्श पर होना चाहिए<br/><br/>

कहाँ हैं तू, आज तू कहाँ है?<br/>
मेरे जिस्मो-ज़हन के सिवा तू कहीं दिखती ही नहीं<br/>
खा़मोश ये लब आज भी बेक़रार हैं<br/>
तुमसे कुछ कहने के लिए…<br/><br/>

गर जो तुमसे मुनासिब हो<br/>
तुम आज ही लौट आओ<br/>
कि शायद ‘विनय’ क़यामत की दहलीज़ पर है<br/><br/>