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|रचनाकार=विनय प्रजापति 'नज़र'
}}
'''लेखन वर्ष: २००३ '''<br/><br/>
टूटा हुआ चाँद है मटमैली-सी रात में<br/>
बुझती हुई रोशनी है जैसे शाम की<br/><br/>
एक-एक ख़िज़ाँ के पत्तों पर लिखा था नाम तेरा<br/>[[category: नज़्म]]कुछ अब भी पड़े होंगे… सूखे, टूटे हुए<br/><br/poem>
किरने भीगे हुए सूरज की हैं जाविदाँ<br/>टूटा हुआ चाँद है मटमैली-सी रात मेंकुछ एक रखी होंगी दिल बुझती हुई रोशनी है जैसे शाम की दराज़ों में<br/><br/>
कहानी अधूरी सही अपने प्यार की<br/>मगर लम्सोएक-उन्स हैं पानी की तरह<br/><br/>एक ख़िज़ाँ के पत्तों पर लिखा था नाम तेराकुछ अब भी पड़े होंगे… सूखे, टूटे हुए
गोशा-ए-किरने भीगे हुए सूरज की हैं जाविदाँकुछ एक रखी होंगी दिल की दराज़ों में कौन बैठा है मेरे ज़ख़्मों<br/>हरा रंग अपना उसको भी दिखाओ ज़रा<br/><br/>
मंज़र यह शाम का और आँसुओं के साहिल<br/>सब एक ज़र्द कहानी अधूरी सही अपने प्यार की तह में दब गये मगर लम्सो-उन्स हैं<br/><br/>पानी की तरह
कुछ शहदगोशा-ए-सी बूँदे हैं तेरी आवाज़ों की<br/>आज भी गूँजती हैं दिल के सन्नाटों में<br/><br/>कौन बैठा है मेरे ज़ख़्मोंहरा रंग अपना उसको भी दिखाओ ज़रा
मैं ख़ला में भटकता रहा सय्यारों की जैसे<br/>मंज़र यह शाम का और आँसुओं के साहिलमुझे तुम जैसा चाँद नसीब न हुआ<br/><br/>सब एक ज़र्द की तह में दब गये हैं
मुझे सौदाई समझे यह ज़माने वाले<br/>कुछ शहद-सी बूँदे हैं तेरी आवाज़ों कीदोस्तों में आज भी रहा अजनबी की तरह<br/><br/>गूँजती हैं दिल के सन्नाटों में
मैं ख़ला में भटकता रहा सय्यारों की जैसेमुझे तुम जैसा चाँद नसीब न हुआ मुझे सौदाई समझे यह ज़माने वालेदोस्तों में भी रहा अजनबी की तरह मेरी हर दुआ और आह में तेरा नाम निकला<br/>रश्क़ इस बात पे मैंने खु़दा का भी देखा '''लेखन वर्ष: २००३<br/><br/poem>