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|रचनाकार=विनय प्रजापति 'नज़र'
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[[category: नज़्म]]<poem>'''लेखन वर्ष: १३/अप्रैल/२००३'''<br/><br/>कहाँ है वो चेहरा, गुलाबी चेहरा<br/>जिसको देखकर चाँद भी रश्क़ करता है<br/>कहाँ हैं वो ज़ुल्फों की लटें<br/>जो तेरे माथे पे सबा के साथ मचलती हैं<br/>उन्स करती हैं…<br/><br/>
कहाँ है वो तेरे माथे की छोटी-सी बिंदिया<br/>चेहरा, गुलाबी चेहराजिसका गहरा रंग तेरे हुस्न में चार जिसको देखकर चाँद लगाता भी रश्क़ करता है<br/>कहाँ हैं वो आँखें झील-सी गहरी आँखें<br/>ज़ुल्फों की लटेंजो तेरे माथे पे सबा के साथ मचलती हैंजिनकी खा़हिश में हर रात खा़बीदा हुआ उन्स करती है<br/><br/>हैं…
कहाँ हैं है वो लब जो तितलियों के परों से नाज़ुक़ हैं<br/>तेरे माथे की छोटी-छोटी बात पे खिलते हैं<br/>सी बिंदियाजिसका गहरा रंग तेरे हुस्न में चार चाँद लगाता हैकहाँ हैं वो गुलाबी रोशनाइयाँ<br/>आँखें झील-सी गहरी आँखेंजिनसे सुबह होती जिनकी खा़हिश में हर रात खा़बीदा हुआ करती है, कलियाँ चटकती हैं’ महकती हैं<br/><br/>
कहाँ हैं वो हाथ, मरमरीं हाथ<br/>लब जो तितलियों के परों से नाज़ुक़ हैंजिन्हें मेरे हाथों में होना चाहिए<br/>छोटी-छोटी बात पे खिलते हैंकहाँ हैं वो पाँव, हसीन पाँव<br/>गुलाबी रोशनाइयाँजिन्हें मेरे घर की फ़र्श पर होना चाहिए<br/><br/>जिनसे सुबह होती है, कलियाँ चटकती हैं’ महकती हैं
कहाँ हैं तूवो हाथ, आज तू कहाँ है?<br/>मरमरीं हाथजिन्हें मेरे जिस्मो-ज़हन के सिवा तू कहीं दिखती ही नहीं<br/>हाथों में होना चाहिएखा़मोश ये लब आज भी बेक़रार कहाँ हैं<br/>वो पाँव, हसीन पाँवतुमसे कुछ कहने के लिए…<br/><br/>जिन्हें मेरे घर की फ़र्श पर होना चाहिए
कहाँ हैं तू, आज तू कहाँ है?मेरे जिस्मो-ज़हन के सिवा तू कहीं दिखती ही नहींखा़मोश ये लब आज भी बेक़रार हैंतुमसे कुछ कहने के लिए… गर जो तुमसे मुनासिब हो<br/>तुम आज ही लौट आओ<br/>कि शायद ‘विनय’ क़यामत की दहलीज़ पर है<br/><br/poem>