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एक शाम को / प्रयाग शुक्ल

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|संग्रह=यह जो हरा है / प्रयाग शुक्ल
}}
 <Poem>
वह शाम का एक चोर दरवाज़ा था
 
पार्क के एकांत में,
 
चींटों में आकर मिला जा रहा था
 
रात का रंग ।
 
एक वायुयान जा रहा था उड़ता हुआ
 
ऊपर--आकाश पर पहली बत्तियाँ ।
 
ढिबरियाँ घरों की आईं याद,
 
सुदूर ।
 
बहुत दूर थे बरस दिन मास
 
और उनमें लोग ।
 
आ टिके अपने ही दिन घास पर
 
जिनमें बचे थे कुछ ही साबुत ।
 
बसों की घरघराहट और
 
वाहनों के शोर के बीच,
 
आकाश था एक अनवरत
 
सिलसिला--
हिला
 
धीरे से एक पेड़
 
मैंने ली एक करवट ।
 
पेड़ की कोई करवट
 
नहीं होती,
 
उसकी नींद में भी नहीं ।
 
रहता है खड़ा
 
आकाश के नीचे
 
जड़ें फेंक
 
धरती में
 
जब तक कि है ।
</poem>
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